This poem has been written by Mr. Dhitesh Sharma, one of my school's Chemistry teacher in memories of his train travel when he was a child. Please have a look and express your views on this beautiful poem...
[यादों के झरोखे से]
आज भी याद आती है
वो गर्मी की छुट्टियों में
गाँव...
more... जाने की तैयारी
मम्मी का सुबह - सुबह
जल्दी उठना, और
सबको जगाना बारी - बारी
वो तेजी से
अपने सारे सामान समेटना
ऑटो में स्टेशन जाना
फिर प्लेटफॉर्म पर, पेपर बिछा बैठना
और ट्रेन का कभी - कभी
वो लंबा इंतज़ार
तथा उसके विलंब होने की खबर
महिला एनांसर देती बार - बार
आज भी याद आती है
प्लेटफॉर्म की वो कॉमिक्स की दुकान
जहाँ पापा के साथ था
हर कॉमिक्स खरीद लेने की इच्छा नादान
फिर अंततः ट्रेन का प्लेटफॉर्म पर आना
और सारे सामान समेट
अपनी आरक्षित बोगी में जाना
वो ट्रेन की सीटी
छुक - छुक की आवाज़
और प्लेटफॉर्म पर पीछे छूटते लोग
मन खुशी से झूम उठता
मानो ठीक हो गया हो, कोई पुराना रोग
फिर शुरू हो जाता
एक और सिलसिला
कोई हॉकर चने बेचता
कोई बेचता मूढी में मिक्सचर मिला
और हर हॉकर को देख मचल जाना
कभी कुछ पीना - कभी कुछ खाना
अंततः फिर थक हार
मम्मी का निकालना
वो पैकेट - ए - अखबार
जिसमें अक्सर होती
पूरी और आलू की भुजिया
दूसरे पैकेट में पकवान भी होते
कभी नीमकी कभी खोए भरी गुजिया
फिर पेट भरते ही
सफर की उत्तेजना कुछ पड़ जाती मंद
ट्रेन की वो हिलती बोगी
अब आँखें होने लगती बंद
पता ही नहीं चलता
कब आ जाती अपनी मंज़िल
सामान समेटने लगते
एक बार फिर, सब मिल
और फिर खत्म होता
वो एक न भूलनेवाला सफर
जिसकी यादें अब भी
गुदगुदाती हैं, रह - रह कर...