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Blog Posts by IM UR LOVER
Page#    32 Blog Entries  <<prev  next>>
3366 views
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Aug 15 2011 (10:33)  
 
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Entry# 220396              
(1) Is there any cloak room for luggage available at Amritsar Jn station 24 hours all days? (2) Is there any cloak room for luggage available at NDLS station 24 hours all days? (3) What about getting a non-ac/ac retiring room for 3 passengers at Amritsar Jn? (4) What about getting a non-ac/ac retiring room for 3 passengers at NZM?
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2587 views
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Aug 15 2011 (10:39)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220396-1              
YES ur all query
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2 Public Posts - Mon Aug 15, 2011
13116 views
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Aug 15 2011 (00:08)  
 
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Entry# 220278              
Swathantrya Dhina subhakankshalu to all.
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49 Public Posts - Mon Aug 15, 2011

4716 views
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Aug 15 2011 (09:13)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220278-69              
@220278-0  @guest
@KALINGAS**: Re# 220278-68
Today (8:53AM)
Re# 220208-55 Reply Add Bookmark Remove Post
Author: IM UR LOVER 25 blog posts 6 correct pred (100% accurate) chat
@...
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class="reversehighlighted">IM UR LOVER: Re# 220208-52
प्यारे दोस्तो, एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत 64 वर्षो का सफर तय कर चुका है। यह हम सभी के लिए गौरव और खुशी का क्षण है। साथ ही हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने विचारों को पुनर्जीवित करने, अपनी प्रगति की समीक्षा करने और उन चुनौतियों का सामना करने के लिए नई रणनीतियां बनाने की भी जरूरत है, जो 21वीं सदी के भारत के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं। मेरा मानना है कि ऊर्जा और प्रेरणा से भरे युवा हमारी सबसे बड़ी संपदा हैं।
भारत के पास ऐसे 60 करोड़ से भी अधिक युवा हैं और देश के समक्ष स्थित चुनौतियों का सामना करने, उपलब्ध संसाधनों का उपयुक्त दोहन करने और वर्ष २क्२क् तक आर्थिक रूप से विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यहां मैं विशेष रूप से दो युवाओं के बारे में बताना चाहूंगा, जो इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण हैं कि प्रेरणा से भरे युवा किस तरह खुद को और समाज को बदल सकते हैं।
मैं कर सकता हूं : दोस्तो, जब मैं भारत का राष्ट्रपति था, तब 28 अगस्त 2006 को मैं आंध्रप्रदेश के आदिवासी विद्यार्थियों के एक समूह से मिला। मैंने उन सभी से एक ही सवाल किया : ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ कई छात्रों ने इस सवाल का अपनी तरह से जवाब दिया, लेकिन नौवीं कक्षा में पढ़ रहे एक दृष्टिबाधित लड़के ने कहा कि ‘मैं भारत का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनूंगा।’ मुझे उसकी महत्वाकांक्षा अच्छी लगी, क्योंकि अपने लिए छोटे लक्ष्य तय करना एक अपराध है।
मैंने उसे शुभकामनाएं दी। इसके बाद उस लड़के ने कड़ी मेहनत की और 10वीं की परीक्षा में 90 फीसदी अंक पाए। बारहवीं की परीक्षा में उसने और अच्छा प्रदर्शन करते हुए ९६ फीसदी अंक पाने में कामयाबी हासिल की।
उसका अगला लक्ष्य था एमआईटी कैम्ब्रिज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। उसकी कड़ी मेहनत और लगन के कारण उसे न केवल एमआईटी कैम्ब्रिज में सीट मिली, बल्कि उसकी फीस भी माफ कर दी गई। उसकी प्रतिभा को देखते हुए जीई (जनरल इलेक्ट्रिक) के वालंटियर्स ने उसकी अमेरिका यात्रा के लिए आर्थिक मदद की।
जब जीई ने उसका ग्रेजुएशन पूरा होने पर उसके समक्ष जॉब का प्रस्ताव रखा, तो उसने जवाब दिया कि यदि वह भारत का राष्ट्रपति नहीं बन पाया तो जरूर इस पर विचार करेगा। इस लड़के का आत्मविश्वास अद्भुत है। संकल्प और दृढ़ता एक दृष्टिबाधित लड़के के जीवन में भी व्यापक बदलाव ला सकते हैं।
सपनों से सोच, सोच से हकीकत : 7 जनवरी २क्११ को मैं मीनाक्षी मिशन हॉस्पिटल में पीडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी कैंसर यूनिट का शुभारंभ करने मदुरै गया था। कार्यक्रम के दौरान अचानक मैंने देखा कि एक व्यक्ति मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। मुझे उसकी शक्ल जानी-पहचानी लगी।
करीब आने पर मैंने देखा कि वह मेरा पूर्व ड्राइवर था। 1982 से 1992 के दौरान जब मैं हैदराबाद में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब का डायरेक्टर था, तब वह मेरे लिए काम किया करता था। उसका नाम था वी काथिरेसन। उन दस सालों के दौरान मैंने गौर किया था कि जब वह कार में मेरी प्रतीक्षा किया करता था तो वह उस समय का उपयोग कुछ न कुछ पढ़ने में करता था।

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Aug 15 2011 (09:19)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220278-71              
@220278-0  @guest
@IM UR LOVER: Re# 220278-70
आजादी आजादी की 65वीं सालगिरह पर भारत सिर्फ अपनी दुविधाओं से नहीं जूझ रहा बल्कि दुनिया के हर देश की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से गुंथी हुई है। यह अनिश्चितता का काल है। यूरोप और अमेरिका मंदी और दंगों का सामना कर रहे हैं। रूस घर में ही पनपे फासीवाद से जूझ रहा है और चीन अपनी अंतहीन आकांक्षाओं की गिरफ्त में है। ऐसे बदलावों के दौरान हमें यह सोचना जरूरी है कि भविष्य के भारत की तस्वीर कैसी होगी।
हम समाजवाद और पूंजीवाद के बीच झूलते रहते
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हैं। लेकिन दोनों के बीच एक स्वाभाविक तकरार है। इसलिए यह सवाल पैदा होता है कि दीर्घकालीन विकास के लिए किस तरह के मॉडल की जरूरत है। भारत की वास्तविकताएं बाकी देशों से अलग हैं। भारी आबादी और खंडित पहचानों वाले इस देश में आर्थिक असमानताएं है। इस समय दुनिया में कोई भी मॉडल ऐसा नहीं है जो भारत की दिक्कतें पूरी तरह सुलझा दे। इसलिए हमें भारतीय मॉडल का विकास करना होगा। 64 साल के स्वतंत्र लोकतंत्र के बाद आज हमारी जरूरत हिंदुस्तानी विचारों से बने हिंदुस्तानी मॉडल की है।
आजादी के बाद देश में विमर्श और बहस के मुद्दे लगातार बदलते और बढ़ते रहे हैं। बहसों का ना सिर्फ दायरा बढ़ा है, बल्कि इनकी संख्या भी बढ़ी है। लेकिन बहसों की बहुलता से यह नहीं कहा जा सकता कि हम ऐसे समाज में तब्दील हो गए हैं जो बहस के जरिए अपनी समस्याओं को सुलझा ले।
बहस की तादाद बढऩा कुछ लोगों की बुद्धिमानी या संवाद की शक्ति का संकेत देती हैं। सिविल सोसाइटी और सरकार अंतहीन बहस कर सकती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन बहसों से समस्याएं सुलझ जाएंगी। किसी भी समाज में बहस और संघर्षों का स्तर बदलता रहता है। समाज में पैदा चिंता, सरकार और देश के नेतृत्व में इसके विश्वास के स्तर से इनमें उतार-चढ़ाव आते हैं। लेकिन वास्तविक बदलावों के लिए बहसों के साथ सही और सटीक काम किए जाने की जरूरत है।
पूरी दुनिया में इस समय मध्य वर्ग भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अक्षमता और सामाजिक अन्याय से दुखी है और इससे लड़ रहा है। मि और मध्य पूर्व में मध्य वर्ग की सक्रियता ने वहां की सरकारों और तानाशाहों की सत्ता छीन ली।
भारत में भी सिविल सोसाइटी को मध्य वर्ग के इसी गुस्से से समर्थन मिल रहा है। मध्य वर्ग बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और सामाजिक सेवाओं की गैरमौजूदगी और इंसाफ दिलाने में नाकाम हो रही अदालतों की वजह से गुस्से से उबल रहा है। देश में यह वर्ग सबसे मुखर है। लेकिन उसकी यह मुखरता लोकतंत्र में भागीदार होगी, यह जरूरी नहीं क्योंकि मध्य वर्ग कभी लोकतंत्र में शामिल नहीं होता, वह कम ही वोट करता है। एक लोकतांत्रिक देश में मध्यवर्ग की अगुवाई में होने वाले किसी भी बदलाव की यह एक बड़ी खामी है।

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Aug 15 2011 (09:20)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220278-72              
@220278-0  @guest
@IM UR LOVER: Re# 220278-71
लोकतंत्र के आयामों को आम आदमी ही आकार देता है। आम लोगों के अखबार बिजनेस भास्कर के हर पाठक को यह पता है कि देश में परिवर्तन की जो मौजूदा लहर दिख रही है वह इतनी मजबूत नहीं है कि कोई वास्तविक सुधार हो सके। क्या इसका मतलब यह है कि ग्लोबल अनिश्चितता के इस दौर में हमारे यहां कोई परिवर्तन नहीं होगा? क्या इसका मतलब यह है कि हम कभी एक सफल देश के तौर पर दुनिया के सामने हम नहीं आ सकेंगे? एक चीनी विशेषज्ञ ने मुझसे कहा था- 'जब हम भारत की ओर देखते हैं तो कई संघर्ष दिखाई पड़ते हैं। देश के आकार और लोकतंत्र के कारण दिक्कतें और भी जटिल
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हो जाती हैं।
हम भारत को अपने लिए चुनौती नहीं मानते क्योंकि चीन को भारत की मुश्किलों का पता है। हम भारत से सीखते हैं लेकिन अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए हम उसके तरीके नहीं अपनाते। चीनियों को समस्याएं सुलझाने के अपने नजरिये पर पूरा भरोसा है।' चीनी अपने तरीके में इतने सफल हैं कि पूरी दुनिया अभी तक यह समझ नहीं पाई कि उसे क्या नाम दें। चीन ने अपनी ज्यादातर समस्याएं सुलझा ली हैं, लेकिन भारत में बाल मृत्यु दर, साक्षरता, बेरोजगारी, शहरीकरण और बढ़ती असमानता जैसी बुनियादी समस्याएं अब भी बरकरार हैं।
भारत अतिवाद के बीच झूल रहा है। समाजवाद से कल्याणवाद और फिर पूंजीवाद तक। लेकिन हम तार्किक और न्यायपूर्ण सुसंगत विकास के अपने घोषित लक्ष्य को हासिल करने के लिए कोई अपना तरीका विकसित नहीं कर पाए हैं। इस दुविधा को मिटाने और यहां तक कि इसे पहचान कर इस पर काम शुरू करने तक में हम नाकाम रहे हैं। हम बाहर के किसी बने-बनाए और खामियों से भरे आर्थिक मॉडल को अपनाने का आसान तरीका अपनाते हैं।
भारत में सिर्फ अर्थव्यवस्था पर आधारित कोई मॉडल सफल नहीं हो सकता है। सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक बुनियाद के बिना किसी भी मॉडल का असफल होना तय है। हम अपनी समस्याओं को इसलिए नहीं समझ पाते क्योंकि इसे समझने वाले सभी अर्थशास्त्री हैं। अर्थशास्त्र गणित नहीं है। हालांकि अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अर्थशास्त्रीयों से ज्यादा गणितज्ञों को ही मिला है।
अर्थशास्त्री और अर्थशास्त्र भगवान की तरह हमारी राजनीति, हमारे समाज और हमारी ब्यूरोक्रेसी पर हावी है। यह एक ऐसा भगवान है जिसकी बात सर्वोच्च है और सबपर लागू हो रही है। मगर सिर्फ पश्चिमी संस्कृति में एक ही भगवान सर्वोच्च होता है। भारत में तो लाखों भगवानों को मानने की परंपरा रही है। यहां कोई एक भगवान सर्वोच्च नहीं है।
यह आलोचना भी वाजिब है कि मीडिया भी एक और भगवान बन गया है। यह नया भगवान कइयों की तकदीर तय कर रहा है और हर किसी के बारे में फैसला लिये बैठा है। मीडिया का यह नजरिया आम लोगों की बुद्धिमता का अपमान है।
संपादक यह भूल गए हैं जनता जब किसी मुद्दे पर एकमत होती है तो वह मत किसी भी बुद्धिमान आदमी के मत से ज्यादा भारी होता है। हमारे यहां बुद्धिमान लोगों की भरमार है। यह सब जानते हैं। लेकिन उनके पास नए विचार नहीं हैं। दूसरा सच यह है कि यह बुद्धिमान लोग अंग्रेजी में बहस करते हैं, बात करते हैं और अंग्रेजी ही समझते हैं। इससे वे भारत की वास्तविकताओं से कट जाते हैं।
हिंदुस्तान कहीं अपना रास्ता भटक रहा है और खो रहा है। जब तक हमारे मौलिक विचार इतने धारदार न हों कि उन्हें सही मायने में रचनात्मक तौर पर लागू किया जा सके तब तक एक राष्ट्र के तौर पर अपनी संभावनाओं के दोहन में हम पीछे रहेंगे। पूरी दुनिया में छाई मंदी का असर हम पर भी पड़ेगा। लेकिन भारत के लिए मौके और चुनौतियां बाकी दुनिया से बड़ी होंगी। अगर अगले एक दशक में हम अपनी समस्याओं का मौलिक और भारतीय हल नहीं ढूंढ पाए तो फिर हम अपनी पिछले पांच साल की गति कभी दोबारा हासिल नहीं कर पाएंगे।
भारत की तरक्की को प्रतिस्पद्र्धा की राजनीति और भ्रमित करने वाले मॉडलों में डूबने नहीं दिया जा सकता। स्वतंत्र विचारों वाले नेताओं को आगे आने की जरूरत है। आइए हम इन नए विचारों के साथ आजादी की सालगिरह का जश्न मनाएं। ऐसा ही एक विचार है 'वित्तीय समायोजन से कैसे सामाजिक समायोजन कैसे हासिल किया जाए।
(क. यतीश राजावत - लेखक दैनिक भास्कर समूह के प्रबंध संपादक हैं, editor@businessbhaskar.net)

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82 Public Posts - Mon Aug 15, 2011

1 Public Posts - Tue Aug 16, 2011

3 Public Posts - Wed Aug 17, 2011
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Aug 14 2011 (21:40)  
 
Yusuf_Azhar^   52055 blog posts
Entry# 220208              
@All My Indian Brothors, Sisters(All Member, Admins, Guest & Respected Moderator Sir..
************************************************** ********************
Aao desh ka samman kare, ,
shahido ki shahadat yaad kare, ,
ek baar fir se rashtra ki kamaan..
Hum
...
more...
Hindustani apne haath dhare.., ,
Aao.. Swantantra diwas kaa maan kare, ,
Happy Independence Day In Advance.

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11 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

1124 views
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Aug 14 2011 (22:11)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-14              
@Ranz Leim**: Re# 220208-4
सर -यह नेक कर्म ?? कोई महान आत्मा ही होगी जो ऐसा कर रही है - और ऐसा आज ही नहीं हो रहा है हम पिछले कई दोनों से देख रहे है -- सो कृपया इस हलकट मनुष्य की हरकतों पर ध्यान ना देवे -
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1 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

1140 views
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Aug 14 2011 (22:14)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-16              
@Happy Independence Day 2 All**: Re# 220208-0

हमने 15 अगस्त, 1947 को पटकथा का केंद्रीय भाव खो दिया था। हमने सोच लिया कि एडविना और लॉर्ड लुईस माउंटबेटन के महल पर तिरंगा लहराना ही महात्मा गांधी द्वारा 1919 में शुरू की गई स्वतंत्रता परियोजना के अंत का प्रतीक है। यह तो एक दूसरे और उतने ही मुश्किल स्वातं˜य संघर्ष की शुरुआत थी। पहला ब्रिटिशों के विरुद्ध रहा था। दूसरा भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष साथी भारतीयों के खिलाफ होगा।
जब
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मैं उन बेशुमार चीजों पर मनन करता हूं, जिनसे हमें अब भी आजादी की जरूरत है, तो वर्तमान और अतीत अपनी प्रमुखता के लिए होड़ करते नजर आते हैं। इस सूची में सबसे ऊपर की तरफ है, भूख। हमें इस भूख को ग्रामीण और जनजातीय भीतरी क्षेत्रों में नहीं खोजना होगा, जहां माओवादियों ने जनसमूह को विचारधारा नहीं, मानव अधिकारों के नाम पर जुटाया है : इसकी दरकार एक कृशकाय और उत्पीड़ित आत्मा को केवल जोड़े रखने के लिए महज पर्याप्त खाने के अधिकार से ज्यादा बड़ी हो सकती है? माओवादियों की गोलाबारी अब भी केवल टरटराहट ही है। यह भूख अब तक गुस्से में तब्दील नहीं हुई है। उस दिन- और रात उदासीन अमीर व आत्मसंतुष्ट मध्यवर्ग को भगवान बचाए, जब गरीब ने तय कर लिया कि जिनके पास कुछ नहीं है, उनके पास खोने को भी कुछ नहीं है।
गरीब कोई बहुत दूर की हकीकत नहीं हैं। वे भारत के सबसे ज्यादा बिगड़ैल और आत्मसंतुष्ट शहर, दिल्ली की राहों और किसी छोटे-मोटे शहर को खरीद सकने की कीमत पर बने गगनचुंबी अपार्टमेंट्स के सामने जमीन पर सोते हैं। गलियां बच्चों की उन पीढ़ियों का एकमात्र घर हैं, जो भीख नहीं मांग रहे होते, तब हंसने की कुव्वत रखते हैं। बेघर बच्चे के लिए उध्र्वगति क्या हो सकती है? कालकोठरी की छत? तिहाड़ जेल पहुंचने वाले 90 फीसदी किशोरों के पास कुछ भी नहीं होता- पहनी हुई शर्ट के अलावा दूसरी शर्ट भी नहीं। आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद, कालकोठरी ही एकमात्र घर है, भारत उनके लिए जिसकी पेशकश करता है।
मैं अनावश्यक रूप से कड़वाहट भरा नहीं लगना चाहता। हमें 1947 में एक ऐसा भारत मिला, जहां पूरब में तीन बरस के भीतर 40 लाख लोग अकाल के कारण काल कलवित हो चुके थे। इसकी सबसे ज्यादा मार बंगाल पर थी। हमने अंग्रेजी आर्थिक नीतियों के नतीजे, अकाल को पीछे छोड़ दिया है- पीड़ादायक स्मृति, जो अब करोड़ों परिवारों के व्यक्तिगत इतिहास तक सीमित है। लेकिन यह उन आधा अरब लोगों के लिए मामूली सांत्वना ही है, जो अब भी अभाव में जीते हैं। उनकी उम्मीदें 20 की उम्र में उड़नछू हो जाती हैं और दांत 40 में चले जाते हैं। और उनकी जिंदगियां बहुत लंबे समय तक कुम्हलाई हुई नहीं रह पातीं। यह आजादी की परियोजना है, जिस पर अगले दशक के दौरान समूचे भारत का ध्यान होना चाहिए। यह आखिरी मौका है और आखिरी जिम्मेदारी, उस पीढ़ी की, जिसे अंग्रेजों के जाने के बाद 1947 में जन्म लेने का सौभाग्य मिला।
आधी रात की पीढ़ी की ये संतानंे अपनी जीवन संध्या पर हैं और उनके इरादे एकदम साफ हैं। वे भ्रष्ट भारतीयों से आजादी चाहते हैं। यह विश्वास करना मूखर्तापूर्ण होगा कि सिर्फ दूसरे लोग ही भ्रष्ट हैं। अगर भ्रष्टाचार सिर्फ शक्तिशाली मंत्रियों तक ही सीमित होता, तो जेलों में अपराधियों के लिए काफी जगह खाली होती। भ्रष्टाचार मारक है, क्योंकि इसकी जड़ें प्राधिकार के सबसे निचले स्तर तक व्याप्त हो चुकी हैं। पासपोर्ट कार्यालय का क्लर्क, जो आपके दुख से भी सौ रुपए का नोट दुह लेता है।

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Aug 14 2011 (22:15)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-17              
@IM UR LOVER: Re# 220208-16
जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय का बाबू, जो आपको कानूनी तौर पर मिलने वाली चीज भी आपकी जेब से कुछ फीसदी लिए बगैर नहीं देता। कॉन्स्टेबल, जो हर नियम-कायदे को अपने फायदे के रूप में देखता है। हर गड्ढा, जो आप देखते हैं, वह भ्रष्टाचार की अंगूठा निशानी है : क्या आपको हैरानी होती है कि क्यों हमारी सड़कें पहली ही बारिश के बाद युद्ध का मैदान बन जाती हैं, जहां हमें हर पल जूझना होता है? क्यों बारिश लंदन, इस्तांबुल या सिंगापुर की सड़कों की गत नहीं बिगाड़ती, जहां दरअसल हर दोपहर बारिश होती है?
मुक्ति
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की सूची काफी लंबी है। भारतीय असमानता, पाखंड, चापलूसी और मूर्खता से आजादी चाहते हैं। चापलूसी का धूर्त और मक्कार भ्रष्टाचार इन बीमारियों में संभवत: बदतरीन है, क्योंकि यह नेता के अभिमान की पुष्टि के लिए सत्य को तोड़-मरोड़ देता है। एक दृष्टांत तत्काल मन में आता है, लेकिन इस युवा आशा को ही बार-बार रटना भी अन्याय ही होगा। हर पार्टी इस अधमता की बराबर दोषी है।
महात्मा गांधी, जिन्होंने 15 अगस्त को संभव कर दिखाया, उस दिन का जश्न मनाने के लिए नैतिक इच्छा नहीं जुटा सके, जब हमारे तिरंगे ने यूनियन जैक की जगह ली थी। वे दिल्ली में मग्न मौजियों के बीच नहीं थे। वे कोलकाता में थे- भारतीयों को भारतीयों से बचा रहे थे। जब बीबीसी ने बेलगाछिया के एकांत बसेरे में उनका इंटरव्यू लिया, तो वे जश्न का एक वाक्य तक नहीं ढूंढ़ पाए। गांधी 1919 और 1920 में कहीं ज्यादा खुश व्यक्ति थे। वे जानते थे कि जब लोग उठ खड़े हुए, तो सवाल सिर्फ यह रह जाएगा कि आजादी कब मिलेगी, न कि यह मिलेगी या नहीं। वे एक-चौथाई सदी आगे देख सकते थे। शायद 1947 में गांधी आधी सदी आगे देख सकते थे। गांधी आधुनिक भारत की महान उपलब्धियों पर मुस्कराहट की नजर डाल चुके होंगे, लेकिन उन्होंने तब तक हमें शांति से सोने नहीं दिया होता, जब तक भूख और भ्रष्टाचार मातृभूमि को परेशान किए हुए हैं।
लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।

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Aug 14 2011 (22:17)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-18              
@IM UR LOVER: Re# 220208-17
पत्रकार प्रशिक्षित रूप से मीन-मेख निकालने वाले होते हैं। वे आधे भरे गिलास को आधा खाली गिलास कहना पसंद करते हैं। लेकिन यह केवल पत्रकारों का ही शगल नहीं है। ऐसा लगता है कि इन दिनों पूरे देश में नकारात्मकता की लहर दौड़ रही है, जो इस दृढ़ विश्वास से उपजी है कि हम एक भ्रष्ट और कुप्रशासन से ग्रस्त देश में रह रहे हैं और इसमें हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्यादा उम्मीदें नहीं की जा सकतीं।
जहां हम अपने 65वें स्वतंत्रता दिवस की
...
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ओर बढ़ रहे हैं, वहीं यह भी लगता है कि स्वतंत्रता की मध्यरात्रि में हमारे पितृपुरुषों द्वारा देखे गए स्वप्न तेजी से दु:स्वप्न में बदलते जा रहे हैं। लेकिन क्या वाकई इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे पास जश्न मनाने के इतने कम कारण हैं?
हां, हम ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में 87वीं पायदान पर खड़े हैं। हां, हमारे यहां हजारों करोड़ के घोटाले हो रहे हैं और जनता का पैसा लूटा जा रहा है। हां, हमें अपना काम करवाने के लिए अक्सर अफसरों को घूस खिलानी पड़ती है। लेकिन क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई वाकई नाउम्मीदी से भरी हुई है? अन्ना हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन को ही लें। यदि टीम अन्ना की बातें सुनें तो भरोसा हो जाएगा कि हमारे सभी नेता चोर हैं और उनमें लेशमात्र भी ईमानदारी नहीं है।
लेकिन शायद टीम अन्ना को भी वस्तुस्थिति समझनी चाहिए। ऐसे कितने देश हैं, जहां आप राजनेताओं को खुलेआम बुरा-भला कहें, मसौदे की प्रतियां जलाएं, सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोलें और इसके बावजूद आपके पास अपनी बात कहने की स्वतंत्रता और अवसर हों? हां, लोकपाल विधेयक के लिए हठी सरकार को राजी करने के लिए अन्ना को आमरण अनशन करना पड़ा, लेकिन अन्ना के अनशन के चार माह के भीतर ही संसद को प्रस्तावित भ्रष्टाचाररोधी कानून के स्वरूप पर बहस करने को विवश होना पड़ा है। क्या इससे यह साबित नहीं होता कि हमारा लोकतंत्र जीवंत है?

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Aug 14 2011 (22:17)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-20              
@IM UR LOVER: Re# 220208-18
चलिए, अब हमारे बदनाम नेताओं की बात करते हैं। हां, कुर्सी पर बैठने के कुछ ही सालों में उनकी संपत्ति बढ़कर कई गुना हो जाती है और उनमें से अधिकांश राजनीति को महज कमाई का जरिया मानते हैं, लेकिन इतने नेताओं के बीच कोई एक नेता वह भी तो है, जो अपने क्षेत्र की बेहतरी के लिए अथक प्रयास करता है।
हां, निर्वाचन प्रक्रिया में धन की भूमिका कम करने के लिए हमें चुनाव सुधारों की सख्त दरकार है, लेकिन अगर चुनावों में सफलता का एकमात्र पैमाना
...
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धन-संपदा ही होता तो आज हमारे 544 सांसदों में से 315 वे होते, जिन्हें अधिकृत रूप से करोड़पति घोषित किया गया है। कई निर्वाचित जनप्रतिनिधि दूसरी बार चुनाव जीतने में नाकाम हो रहे हैं। यह तथ्य हमारे लिए संतोषप्रद हो सकता है कि देश के मतदाता प्रभावी रूप से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने को तैयार हैं।
कानून-व्यवस्था पर भी एक नजर डालते हैं। हां, निम्नतर न्यायपालिका चिंतनीय स्थिति में है और लंबित मामलों के पुलिंदों से निजात पाने के लिए हमें अधिक न्यायाधीशों की जरूरत है। और हां, हमें पुलिस सुधारों की भी शिद्दत से दरकार है। लेकिन क्या हमें इस बात पर खुशी नहीं जतानी चाहिए कि लाखों भारतीयों का कानून पर भरोसा आज भी बरकरार है और वे आज भी सड़क पर लड़ने के बजाय अदालत में मुकदमा लड़ने को प्राथमिकता देते हैं? ऐसे न्यायाधीश भी बहुतेरे हैं, जिन्होंने समाज के वंचित तबके के हितों की रक्षा करने के लिए अद्भुत तत्परता और क्षमता का परिचय दिया है।
मीडिया पर भी हाल के दिनों में पक्षपात, सनसनीवाद, पेड न्यूज और इससे भी बुरे आरोप लगे हैं। हां, मीडिया में कुछ लोग ऐसे जरूर हैं, जिन्होंने अपने नैतिक दिशासूचक गंवा दिए हैं, लेकिन हमें यह भी संतोष होना चाहिए कि मीडिया अब भी एक सामाजिक प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले दिनों उजागर हुए इतने घपले और घोटाले नजरअंदाज कर दिए गए होते।
यकीनन, निराश होने के कई कारण हैं।
एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे हैं और लोग भूखे सोने को मजबूर हैं तो दूसरी तरफ खुले में अनाज सड़ रहा है। लेकिन यहां इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आठ फीसदी विकास दर ने गरीबी के दायरे से बाहर निकलने में लाखों लोगों की मदद भी की है। नक्सलवाद अब भी एक समस्या बना हुआ है और कश्मीर का ऐतिहासिक घाव अब नासूर बनता जा रहा है। लेकिन नक्सली अपने राज्यविरोधी मंसूबे पूरे कर पाने में अब भी नाकाम हैं, वहीं कश्मीरी अलगाववादियों से संवाद प्रक्रियाएं बताती हैं कि हम जहां ठोस रुख अख्तियार करना जानते हैं, वहीं हमें समन्वय की राह चलना भी आता है।
लेकिन स्वतंत्र भारत का वास्तविक गौरव उसके लोगों में यानी हम सबमें है। एक उपमहाद्वीप के आकार वाले इस विशाल देश के लिए पिछले 64 सालों में अपनी राह गंवा देना और जाति, धर्म, समुदाय के विभाजनों से परास्त हो जाना बहुत आसान होता। विभाजन अब भी हैं और कई मौकों पर वे भयानक हिंसा का कारण भी बने हैं, लेकिन घृणा और कट्टरता की हर घटना के साथ ही इस देश में सहअस्तित्व और सौहार्द की भी मार्मिक कहानियां हैं।
भारत की यात्रा करें तो इस सफर में आपका परिचय कई वास्तविक नायक-नायिकाओं से होगा, जिन्होंने एक साधारण जीवन बिताते हुए देश के लिए असाधारण योगदान दिया है। आरके लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ की ही तरह वे नामहीन हो सकते हैं, लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर भारत के विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
पुनश्च: ठीक है, हम बहुत जल्द ही अपनी नंबर वन टेस्ट क्रिकेट रैंकिंग गंवा सकते हैं और इससे देशव्यापी निराशा में और इजाफा होगा। लेकिन विश्व चैंपियन कहलाने का अधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता। आखिरकार जैसा कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहा है, हम एक ‘फिफ्टी-फिफ्टी नेशन’ हैं। तो इस स्वतंत्रता दिवस पर हमें अपनी गलतियों पर अफसोस करने के बजाय अपनी कामयाबियों का जश्न क्यों नहीं मनाना चाहिए?

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Aug 14 2011 (22:23)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-21              
@IM UR LOVER: Re# 220208-20

यदि राजनीति सेल्यूलाइड का आईना होती तो यकीनन हमारे नेता फ्रेम से बाहर नजर आते। एक पखवाड़ा पहले दो हिंदी फिल्में रिलीज हुई थीं: बुड्ढा होगा तेरा बाप और देल्ही बेली। पहली फिल्म में किंवदंती बन चुके अमिताभ बच्चन 1970 के दशक का जादू फिर से जगाने की कोशिश कर रहे थे, जबकि दूसरी फिल्म एक मल्टीप्लेक्स मूवी थी, जिसके युवा अभिनेता एमटीवी पीढ़ी के अनुरूप थे। व्यवसाय के आंकड़े बताते हैं कि देल्ही बेली ने पहले सप्ताह में अमिताभ की फिल्म से दोगुनी कमाई
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की।
शायद इसका सबसे अहम कारण था ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’। जिस देश की आबादी का 60 फीसदी हिस्सा अमिताभ की हिट फिल्म जंजीर रिलीज होने के बाद जन्मा हो, उसे देल्ही बेली का धृष्टतापूर्ण हास्य ज्यादा अनुकूल लगा। डीके बोस को भले ही अशिष्ट कहा जाए या मूर्खतापूर्ण कहकर पुकारा जाए, लेकिन वह स्पष्टत: ‘फ्लैवर ऑफ द सीजन’ है।
इसके ठीक विपरीत इस हफ्ते हुआ मंत्रिमंडलीय फेरबदल (या जैसा कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने कहा: ‘राजनीतिक खो-खो’) एक बुजुर्ग भारत का प्रतिनिधित्व करता जान पड़ा। फेरबदल के बाद हमारे कैबिनेट मंत्रियों की औसत आयु 65 वर्ष है, जबकि यूपीए-2 की मंत्रिपरिषद की औसत आयु 60 वर्ष है।
जहां प्रधानमंत्री सहित 14 कैबिनेट मंत्री 70 पार कर चुके हैं, वहीं महज एक मंत्री कुमारी सैलजा 40 के दशक में हैं। इनमें से अधिकांश मंत्रियों का जन्म स्वतंत्रता से पूर्व हुआ था। राज्यमंत्रियों की औसत आयु 54 वर्ष है, जबकि इस ओहदे को आम तौर पर ‘युवा’ राजनेताओं की नर्सरी माना जाता है।
सचिन पायलट, अगाथा संगमा और मिलिंद देवड़ा, इन तीन राज्यमंत्रियों की उम्र 35 से कम है, लेकिन ये सभी प्रभावशाली राजनेताओं की कर्तव्यपरायण संतानें हैं। यह मानना गलत नहीं होगा कि यदि वे एक राजनीतिक उपनाम से धन्य नहीं होते तो उनके मंत्री बनने के अवसर धुंधले ही होते।
वैसे भी दिग्गजों से भरी कैबिनेट में राज्यमंत्री की भूमिका रस्मी तौर पर ही होती है। यह सब एक ऐसे दौर में हो रहा है, जब 45 साल के डेविड कैमरन ब्रिटेन को संवारने का प्रयास कर रहे हैं और 50 साल के बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की तैयारी कर रहे हैं।
आसान विकल्प तो यही होगा कि इस दुर्दशा के लिए हम भारतीय राजनीति में बुजुर्गो के वर्चस्व को दोषी ठहराएं। आखिर वे ही तो उत्साह के साथ कभी परंपरा तो कभी जरूरत का हवाला देकर राजनीति में वरिष्ठता के सिद्धांत की रक्षा करते रहे हैं। सरकार में ‘धवल केशों’ की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता।
राजनीति कोई क्रिकेट का मैच नहीं है, जहां युवाओं के चलते मैच जीते या हारे जा सकें। विवेकशीलता दुर्लभ गुण है और यह गुण केवल समय के साथ ही उन्नत हो सकता है। सरकार की कार्यप्रणाली में महारत हासिल करने के लिए प्रशासकीय अनुभव चाहिए।

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Aug 14 2011 (22:23)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-22              
@IM UR LOVER: Re# 220208-21
आसान विकल्प तो यही होगा कि इस दुर्दशा के लिए हम भारतीय राजनीति में बुजुर्गो के वर्चस्व को दोषी ठहराएं। आखिर वे ही तो उत्साह के साथ कभी परंपरा तो कभी जरूरत का हवाला देकर राजनीति में वरिष्ठता के सिद्धांत की रक्षा करते रहे हैं। सरकार में ‘धवल केशों’ की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता।
राजनीति कोई क्रिकेट का मैच नहीं है, जहां युवाओं के चलते मैच जीते या हारे जा सकें। विवेकशीलता दुर्लभ गुण है और यह गुण केवल समय के साथ ही उन्नत
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हो सकता है। सरकार की कार्यप्रणाली में महारत हासिल करने के लिए प्रशासकीय अनुभव चाहिए।
76 साल के बुजुर्ग और अनुभवी प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री के रूप में हमेशा प्राथमिकता दी जाएगी, विदेश में शिक्षित किसी 40 वर्षीय राजनेता को नहीं, जिसकी शब्दावली तो उचित है, लेकिन जो प्रशासन की जटिलताओं के साथ निर्वाह नहीं कर सकता।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे तथाकथित ‘युवा तुर्को’ ने भी अपना दावा मजबूत करने के लिए कुछ खास नहीं किया। वे कमोबेश अपनी वंशपरंपरा के बंधक ही बने रहे। इन युवा नेताओं में कई लोकतांत्रिक वंशज हैं। वे किसी ऐसे राजनेता की संतानें हैं, जो चुनावी राजनीति को परिवारवाद का ही विस्तार समझते हैं।
वे विशेषाधिकार की भावना से इतने ग्रस्त हैं कि हम उन्हें यदा-कदा ही संसद में बोलते या किसी सामाजिक मोर्चे पर मुखर होते देखते हैं। यदि हमारे सांसद ‘यंग इंडिया’ का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं तो हम उन्हें रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार, पर्यावरण, नैतिकता, एड्स यहां तक कि समलैंगिकता संबंधी अधिकार जैसे उन मुद्दों पर बात करते क्यों नहीं देखते, जो युवा पीढ़ी से वास्ता रखते हैं?
जब भ्रष्टाचार के विरोध में लोकपाल आंदोलन ने जोर पकड़ा, तब भी हमारे युवा सांसद कहीं नजर नहीं आए। उन्होंने इस धारणा को और मजबूत ही किया कि वे विवादित विषयों पर सार्वजनिक रूप से स्पष्ट रुख अख्तियार करने से कतराते हैं।
लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था। 1970 के दशक में नवनिर्माण आंदोलन की शुरुआत यूनिवर्सिटी कैम्पसों में हुई थी, जिसने अंतत: सरकार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया। उस जमाने के विद्यार्थी कार्यकर्ता सत्ताविरोधी रुख अख्तियार करने या युवाओं के लिए मायने रखने वाले मुद्दे उठाने से डरते नहीं थे।
आज राजनीतिक दलों की युवा इकाइयां महिमामंडित इवेंट मैनेजर्स की तरह हो गई हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद हाई-प्रोफाइल तिरंगा यात्रा आयोजित करती है, जिसका युवाओं की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता तो भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन कॉलेज सभागारों के सुनियोजित कार्यक्रमों में राहुल गांधी के इर्द-गिर्द कवायद कर संतुष्ट हो जाता है। लेकिन वे नए विचार कहां हैं, जो एक नए भारत के मानस का निर्माण कर सकते हैं?
अलबत्ता उम्मीदें अभी बाकी हैं। हाल ही में संपन्न युवा नेताओं के एक सम्मेलन में कांग्रेस के 40 वर्षीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने युवा आदर्शवाद के संरक्षण की जरूरत पर एक प्रभावी भाषण दिया। इसी कार्यक्रम में मेरी भेंट कई उल्लेखनीय युवाओं से हुई। चेन्नई के 32 वर्षीय ई शरतबाबू को ही ले लीजिए।
वे एक झुग्गी बस्ती में पले-बढ़े, लेकिन उन्होंने आईआईएम तक का सफर तय किया और फिर अपना एक सफल कारोबार खड़ा किया। उन्होंने तमिलनाडु में चुनाव लड़ा था, जिसमें वे हार गए, लेकिन वे फिर प्रयास करना चाहते हैं। जब शरतबाबू जैसे लोग हमारे बुढ़ाते राजनीतिक गढ़ों में सेंध लगाने में कामयाब होंगे, तभी भारत एक बेहतर देश बन पाएगा।
पुनश्च: राहुल गांधी सरकार में शामिल होने से अब भी कतरा रहे हैं। बताया जाता है कि राहुल अभी तक खुद को इसके लिए तैयार नहीं मानते। जब एक यूथ आइकॉन 41 की उम्र में भी मंत्री पद की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता, तो आखिर हमें हैरानी क्यों होनी चाहिए कि हमारी कैबिनेट दुनिया की सबसे बुजुर्ग कैबिनेट में से एक है?

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6 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (22:39)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-29              
@IM UR LOVER: Re# 220208-22
हम सभी का सामना किसी ऐसे ‘अंकल’ से हुआ होगा, जो समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि इस देश का भगवान ही मालिक है। उनकी हर बात का लब्बोलुआब यह रहता है कि भारत एक भ्रष्ट और नाकारा देश है, जहां जिंदगी गुजारना मुश्किल है। वे हमें बताते हैं कि आरटीओ से लेकर राशन की दुकान और नगर पालिका तक हर सरकारी अधिकारी घूस खाता है। वे हमें यह भी बताते हैं कि कोई भी सरकारी महकमा ठीक से अपना काम नहीं करता।
गड्ढों
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से भरी सड़कें, खस्ताहाल सरकारी स्कूल, बीमार अस्पताल, ये सभी ‘अंकल’ की थ्योरी को सही भी साबित करते हैं। उनसे बहस करना कठिन है, क्योंकि वे गलत नहीं हैं। हमारे यहां सत्ता की तूती बोलती है, न्याय की आवाज दबकर रह जाती है, समानता का कोई नाम नहीं है। चाहे यह सब सुनने में कितना ही दुखद क्यों न लगे, लेकिन सच्चाई यही है।
लिहाजा, ‘अंकल’ अपना राग अलापते रहते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। ऐसा लगता है जैसे उन्हें इस बारे में कोई भी शक नहीं है। निराश ‘अंकल’ हमारी हर चीज पर संदेह करते हैं और बुराइयों को उभारकर सामने रखते हैं। यदि कोई व्यक्ति देश को सुधारने का बीड़ा उठाता भी है तो वे यह घोषणा कर देते हैं कि उसकी हरकतों के पीछे कोई ‘गुप्त एजेंडा’ होगा।
यहीं पर ‘अंकल’ गलती कर जाते हैं। एक गंभीर गलती। क्योंकि समस्याएं गिनाना एक बात है और समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना जीवन दांव पर लगा देना दूसरी। साफ-सुथरे समाज की चाह रखना एक बात है और समाज को सुधारने का प्रयास करने वालों की नीयत पर शक करना दूसरी। सिनिसिज्म या निराशावाद कोई तर्क नहीं है, वह एक रवैया है। क्योंकि तथ्य यह है कि देश में आज भी अच्छे लोग हैं। सरकारी दफ्तरों में भी कुछ अच्छे लोग हैं। समस्या यही है कि उनकी आवाज को दबा दिया जाता है।
मुझे पूरा भरोसा है कि यह कॉलम पढ़ने वालों में से अधिकांश लोग ‘अंकल’ की तरह निराशावादी नहीं हैं। क्योंकि ‘अंकल’ तो अखबार को रद्दी के ढेर में फेंक देंगे और कहेंगे कि इस तरह के फिजूल कॉलम से कुछ भी नहीं हो सकता।
मैं आपको कोई कारण नहीं गिनाना चाहता कि हमें अन्ना का समर्थन क्यों करना चाहिए। यह अन्ना की गरिमा के साथ अन्याय होगा कि उन्हें अपने लिए समर्थन की याचना करनी पड़े, जबकि वे एक भ्रष्ट सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं।
मैं आपका ज्यादा समय लिए बिना कुछ तथ्यों को दोहराना चाहूंगा। अन्ना ने अप्रैल में अनशन किया, जो जल्द ही एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया। चिंतित सरकार ने एक प्रभावी लोकपाल बिल बनाने पर सहमति जताई, आंदोलनकारियों के साथ हाथ मिलाया और सैद्धांतिक रूप से अन्ना के संस्करण पर राजी हो गई। तबसे लगातार सरकार अन्ना की टीम का अपमान कर रही है। उसने उनके मसौदे को एक तरफ पटक दिया और अपना स्वयं का एक मसौदा बनाया, जो कि लगभग निर्थक है।
सरकार संसद में जो मसौदा प्रस्तुत कर रही है, वह भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाएगा। महज 0.5 फीसदी सरकारी अधिकारी इसके दायरे में आते हैं। हमारी भ्रष्ट राशन की दुकानें, आरटीओ, पासपोर्ट दफ्तर, पंचायतें और नगर पालिकाएं इसके दायरे में नहीं आएंगी। प्रधानमंत्री तो खैर लोकपाल से परे हैं ही। क्या आपने कभी किसी लोकतंत्र में ऐसे भ्रष्टाचाररोधी कानून के बारे में सुना है, जो केवल कुछ खास लोगों पर ही लागू होता हो?
सरकार हमारी आंखों में धूल झोंक रही है। वह समझती है कि देश के लोग निरक्षर हैं और वे दोनों मसौदों का अंतर नहीं समझेंगे। बहरहाल, यह कॉलम पढ़ने वाले सभी लोग साक्षर व प्रबुद्ध हैं और वे सही-गलत का भेद समझते हैं। वे जानते हैं कि उन्होंने अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार से संघर्ष करते हुए बिताया है, लेकिन वे यह नहीं चाहते कि उनके बच्चे भी इसी तरह का जीवन बिताएं।

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Aug 14 2011 (22:39)
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Re# 220208-30              
@IM UR LOVER: Re# 220208-29
हो सकता है एक लचर लोकपाल से हमें आज कोई नुकसान न हो, लेकिन कल हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा, जब हमारे बच्चों को कॉलेज में सीट नहीं मिलेगी, जब अस्पतालों में हमारा ठीक से इलाज नहीं किया जाएगा और जब हमारा कोई जरूरी काम सरकारी फाइलों में अटककर रह जाएगा।
हम एक गरीब देश में रहते हैं। गरीब इसलिए नहीं कि हममें अमीर बनने की क्षमता नहीं है, बल्कि इसलिए कि हमारे नेताओं ने हमें निराश किया है। हमने उनके हाथों में जरूरत से ज्यादा सत्ता
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सौंप दी, इसलिए उन्होंने हमारे वोट को चोरी करने का लाइसेंस समझ लिया। उन्हें उत्तरदायित्व से घृणा है, लेकिन उत्तरदायित्व की भावना के बिना हमारा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
इसलिए अन्ना के बारे में हमारी व्यक्तिगत राय चाहे जो हो, हमें उनका नहीं, उनके लक्ष्य और उनके ध्येय का समर्थन करना चाहिए। सरकार चंद आंदोलनकारियों को कुचल सकती है, लेकिन वह पूरे देश को नहीं कुचल सकती। शांतिपूर्ण, ठोस और निर्णायक प्रतिरोध हर भारतीय का अधिकार है। सोमवार से हम सभी का एक ही लक्ष्य होगा: देश के भविष्य की रक्षा।
मैं सरकार से भी कुछ कहना चाहूंगा। आपको क्या लगता है, आप एक लचर कानून बनाकर हमारे गले में ठूंस देंगे? क्या अन्ना को कुचल देने से भ्रष्टाचार से निजात पाने की हमारी जरूरत भी खत्म हो जाएगी? देश में भ्रष्टाचार विरोधी भावनाएं अन्ना ने नहीं उपजाई हैं और अन्ना को कुचल देने से जनभावनाएं समाप्त नहीं हो जाएंगी। अहंकार और दर्प का परिचय देकर आप देश में अराजकता का खतरा उत्पन्न कर रहे हैं और अराजकता से निपटना टेढ़ी खीर होता है। जन लोकपाल कानून को लागू कीजिए, अभी, इसी वक्त। प्लीज।
अंत में मैं जनता से कहना चाहूंगा कि यह ‘अंकल’ को गलत साबित कर देने का समय है। हकीकत ‘अंकल’ के निराशावाद से बड़ी है। गीता में कहा गया है कि जब पाप का घड़ा भर जाता है तो किसी न किसी को धर्म की रक्षा के लिए सामने आना पड़ता है। अब यह हमें तय करना है कि पाप का घड़ा भर चुका है या नहीं। और यह भी हमें ही तय करना है कि सड़कों पर उतरने का समय आ गया है या नहीं।

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Aug 14 2011 (22:46)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-34              
@guest: Re# 220208-27
जी हां अपने तमिलियन होने पर मुझे गर्व है और फख्र है -- इसी के साथ मुझे हिंदी समझाने का -पढने का - लिखने का और बोलने का अधिकार है - यह मेरा कर्त्तव्य भी है -- क्योकि हिंदी हमारे देश की राष्ट्रीय भाषा है --- आपको अस्चर्या होगा सर में चेन्नई में ही एक निजी स्कूल में हिंदी पढ़ाने का अध्यापक हु - और इस कर्म से मुझे दिल को सकूँ मिलता है - भाषा मेरे लिए मेरी प्रगति में कभी भी बाधक नहीं रही - हम कई वर्ष डेल्ही में रहे -वाराणसी में रहे -अवध में रहे -तो हिंदी मेरी अपने आप उतरोत्तर प्रगति करती गयी -- मुझे हिंदी से प्यार है लगाव है - हां
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में तमिलियन हु लेकिन पहले एक भारतीय हु - और अब आपसे एक अनुरोध है की प्यार बरसाओ मित्र -- शीतलता का आनंद होगा - और यदि आग बरसाओगे तो स्वयं इस आग में नष्ट हो जाओगे ---

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2 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (23:11)
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Re# 220208-38              
@कमल जैन**: Re# 220208-37
प्रिय कमल भाई - शुक्रिया आपका -- आपने आज इस ब्लॉग को गुलामी से मीन्स ताले से मुक्ति दिलाई - मेरा निवेदन है की मत बांधो आज किसी तरह की जंजीरे -- खोल दो उड़ने दो आज धरा के इस पंछी को -मुक्त नील गगन की छाँव में --
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1 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (23:15)
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Re# 220208-40              
@guest: Re# 220208-39
THNKS friend
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Aug 14 2011 (23:17)
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Re# 220208-41              
@कमल जैन**: Re# 220208-37
हमारे सभी भाईयो को कल के सुबह की पहली किरण देश की आजादी के इस महोत्सव की - खुशहाली की -हरियाली की - मस्त मस्त नीर भरे बादलो की - झूम झूम कर बढाए देवे -
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1 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (23:19)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-43              
@IM UR LOVER: Re# 220208-41
-- अब हम चले कर फ़िदा जान ओ तन साथीओ -अब तुम्हारे हवाले यह साईट साथीओ ---उम्मीद है सुबह की प्रथम किरण को हम फिर हाजिर नाजिर होगे आपके सामने - शब्बा खैर करे ---
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2 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (23:23)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-46              
@Mahesh Kavthanकर: Re# 220208-44
एक विचार नीय लेख फिर आपको देकर जा रहा हु ताकि आप इस पर गंभीरता पूर्वक विचार kar सके --
भ्रष्टाचार और इसे रोकने की कोशिश ऐसा मुद्दा रहा है जिसने भारतीयों को 'एक' कर दिया है। हालांकि, अभी हमें पता नहीं है कि भ्रष्टाचार के लिए कौन जिम्मेदार है। इसके लिए राजनेताओं और नौकरशाहों पर उंगली उठाना आसान है। लेकिन क्या घूस देकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले उतने ही जिम्मेदार नहीं हैं?
हमें
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मालूम है कि 2 जी, सीडब्लूजी और खनन घोटालों से सरकारी खजाने को करोड़ों रुपयों का चूना लगा है। लेकिन क्या 1000 रुपये के चालान से बचने के लिए ट्रैफिक पुलिस को 100 रुपये घूस देने वाला शख्स, रेलवे टीटीई को सीट के लिए घूस देने वाला यात्री और कॉलेज में एडमिशन के लिए डोनेशन के नाम पर घूस देने वाले मां-बाप दोषी नहीं हैं?
इन सभी अपराधों का स्तर अलग-अलग है, लेकिन इन सब में ‘चलता है’ का रवैया एक जैसा है। इसलिए अब सवाल उठता है- अपने देश में दिख रहे भ्रष्टाचार के लिए कौन जिम्मेदार है? हम अलग-अलग क्षेत्रों में भ्रष्टाचार देखते हैं। इनमें सरकार, शिक्षा, मीडिया, दूरसंचार, रिटेल, निर्माण और खनन जैसे तमामा अहम क्षेत्र शामिल हैं। यहीं से मुझे मेरे दूसरे सवाल का सिरा मिलता है- हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा और कौन यह बताएगा कि भ्रष्टाचार को कम और आखिर में खत्म कैसे करना है?
वे कौन से नेता, विचारक, रणनीतिकार, कॉरपोरेट दिग्गज हैं जिनका ज्ञान, जिनकी विशेषज्ञता और सलाह आप को यानी भारत के लोगों को मंजूर होगी?
और अंत में, आपके पास अपने महान देश को इस विपदा से मुक्ति दिलाने के लिए क्या रास्ता है? आपको क्या लगता है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने का क्या तरीका हो सकता है? अगर एक अरब लोग अपना दिमाग लगाएं तो मुझे यकीन है कि रास्ता जरूर निकलेगा और अंधकार भरी सुरंग के अंत में रोशनी दिखेगी।

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Aug 14 2011 (23:26)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-47              
@IM UR LOVER: Re# 220208-46
और अंत में -- आपका यह lover जा रहा है इस गीत के कुछ बोलो को देकर -हम तो जाते अपने गाम - सबको राम राम राम राम सबको राम राम राम --
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Aug 14 2011 (23:27)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-48              
@Happy Independence Day 2 All**: Re# 220208-45
shukriya ajhar bhai jaan
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2 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

1 Public Posts - Mon Aug 15, 2011

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Aug 15 2011 (08:47)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-52              
@guest: Re# 220208-51
मनमोहन सिंह, नेहरू और इंदिरा के बाद सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहने का गौरव पहले ही हासिल कर चुके हैं। राष्ट्रीय अखंडता का प्रतीक रहे लाल किले पर देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने सबसे ज्‍यादा 17 बार राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इंदिरा गांधी ने देश की प्रधानमंत्री के नाते 16 बार तिरंगा फहराया।
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2 Public Posts - Mon Aug 15, 2011

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Aug 15 2011 (08:53)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-55              
@IM UR LOVER: Re# 220208-52
प्यारे दोस्तो, एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत 64 वर्षो का सफर तय कर चुका है। यह हम सभी के लिए गौरव और खुशी का क्षण है। साथ ही हमें एक राष्ट्र के रूप में अपने विचारों को पुनर्जीवित करने, अपनी प्रगति की समीक्षा करने और उन चुनौतियों का सामना करने के लिए नई रणनीतियां बनाने की भी जरूरत है, जो 21वीं सदी के भारत के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं। मेरा मानना है कि ऊर्जा और प्रेरणा से भरे युवा हमारी सबसे बड़ी संपदा हैं।
भारत
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के पास ऐसे 60 करोड़ से भी अधिक युवा हैं और देश के समक्ष स्थित चुनौतियों का सामना करने, उपलब्ध संसाधनों का उपयुक्त दोहन करने और वर्ष २क्२क् तक आर्थिक रूप से विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यहां मैं विशेष रूप से दो युवाओं के बारे में बताना चाहूंगा, जो इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण हैं कि प्रेरणा से भरे युवा किस तरह खुद को और समाज को बदल सकते हैं।
मैं कर सकता हूं : दोस्तो, जब मैं भारत का राष्ट्रपति था, तब 28 अगस्त 2006 को मैं आंध्रप्रदेश के आदिवासी विद्यार्थियों के एक समूह से मिला। मैंने उन सभी से एक ही सवाल किया : ‘तुम क्या बनना चाहते हो?’ कई छात्रों ने इस सवाल का अपनी तरह से जवाब दिया, लेकिन नौवीं कक्षा में पढ़ रहे एक दृष्टिबाधित लड़के ने कहा कि ‘मैं भारत का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनूंगा।’ मुझे उसकी महत्वाकांक्षा अच्छी लगी, क्योंकि अपने लिए छोटे लक्ष्य तय करना एक अपराध है।
मैंने उसे शुभकामनाएं दी। इसके बाद उस लड़के ने कड़ी मेहनत की और 10वीं की परीक्षा में 90 फीसदी अंक पाए। बारहवीं की परीक्षा में उसने और अच्छा प्रदर्शन करते हुए ९६ फीसदी अंक पाने में कामयाबी हासिल की।
उसका अगला लक्ष्य था एमआईटी कैम्ब्रिज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। उसकी कड़ी मेहनत और लगन के कारण उसे न केवल एमआईटी कैम्ब्रिज में सीट मिली, बल्कि उसकी फीस भी माफ कर दी गई। उसकी प्रतिभा को देखते हुए जीई (जनरल इलेक्ट्रिक) के वालंटियर्स ने उसकी अमेरिका यात्रा के लिए आर्थिक मदद की।
जब जीई ने उसका ग्रेजुएशन पूरा होने पर उसके समक्ष जॉब का प्रस्ताव रखा, तो उसने जवाब दिया कि यदि वह भारत का राष्ट्रपति नहीं बन पाया तो जरूर इस पर विचार करेगा। इस लड़के का आत्मविश्वास अद्भुत है। संकल्प और दृढ़ता एक दृष्टिबाधित लड़के के जीवन में भी व्यापक बदलाव ला सकते हैं।
सपनों से सोच, सोच से हकीकत : 7 जनवरी २क्११ को मैं मीनाक्षी मिशन हॉस्पिटल में पीडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी कैंसर यूनिट का शुभारंभ करने मदुरै गया था। कार्यक्रम के दौरान अचानक मैंने देखा कि एक व्यक्ति मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। मुझे उसकी शक्ल जानी-पहचानी लगी।
करीब आने पर मैंने देखा कि वह मेरा पूर्व ड्राइवर था। 1982 से 1992 के दौरान जब मैं हैदराबाद में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब का डायरेक्टर था, तब वह मेरे लिए काम किया करता था। उसका नाम था वी काथिरेसन। उन दस सालों के दौरान मैंने गौर किया था कि जब वह कार में मेरी प्रतीक्षा किया करता था तो वह उस समय का उपयोग कुछ न कुछ पढ़ने में करता था।

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Aug 15 2011 (08:53)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220208-56              
@IM UR LOVER: Re# 220208-55
मैंने उससे पूछा तुम फुर्सत के क्षणों में कुछ न कुछ पढ़ते क्यों रहते हो? उसने जवाब दिया कि उसके बच्चे उससे बहुत सवाल पूछते हैं। इसलिए उसने पढ़ना शुरू कर दिया है, ताकि उनके सवालों का कुछ तो जवाब दे पाए। पढ़ाई के प्रति उसकी इस लगन ने मुझे प्रभावित किया।
मैंने उससे कहा कि वह पत्राचार पाठ्यक्रम के जरिये फिर से पढ़ाई की शुरुआत करे और बारहवीं पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए तैयारी करे। उसने इसे एक चुनौती की तरह लिया। बीए
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पास करने के बाद उसने इतिहास में एमए किया। इसके बाद उसने राजनीति विज्ञान में एमए के साथ ही बीएड व एमएड भी किया।
फिर उसने डॉक्टोरल स्टडीज के लिए पंजीयन कराया और वर्ष 2001 में उसने पीएचडी कर ली। तमिलनाडु सरकार के शिक्षा विभाग में उसने कई वर्षो तक सेवाएं दी। वर्ष 2010 में वह मदुरै के निकट मेल्लुर में शासकीय कला महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक बन गया।
हाल ही में, लगभग दस दिन पहले कोविलपट्टी तमिलनाडु के यूपीएमएस स्कूल में मेरी फिर प्रोफेसर काथिरेसन से भेंट हुई। मैंने सभी से उनका परिचय कराया और बताया कि किस तरह वे दो दशक की कड़ी मेहनत के बाद पीएचडी ग्रेजुएट और यूनिवर्सिटी प्रोफेसर बन पाए हैं। उनकी प्रेरक कहानी ने युवा श्रोताओं को बहुत प्रभावित किया।
निष्कर्ष : ‘मैं क्या कर सकता हूं’ : दोस्तो, हमारा देश आजादी के 65वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस मौके पर मैं आपसे एक बहुत अहम बिंदु पर बात करना चाहता हूं, जो वर्ष 2020 तक आर्थिक रूप से विकसित देश के निर्माण के हमारे लक्ष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
यकीनन, हम सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहे हैं, जिसके कारण हमारा देश आठ फीसदी की विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है। लेकिन हमारे समक्ष कई गंभीर चुनौतियां भी हैं।
ये हैं भ्रष्टाचार और नैतिक पतन, पर्यावरण को क्षति और समाज में बढ़ती संवेदनहीनता। कुछ बुराइयां हैं, जिन्हें युवावस्था की भलाइयों से परास्त किया जा सकता है। ऐसी बुराइयां आखिर आती कहां से हैं? तमाम बुराइयों की जड़ है अंतहीन लोभ।
भ्रष्टाचार मुक्त और नैतिक समाज और स्वच्छ पर्यावरण के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल बार-बार पूछना चाहिए : ‘मैं अपने देश को क्या दे सकता हूं।’
क्या मैं पर्यावरण के लिए कुछ कर सकता हूं? क्या मैं इस धरती और इस पर रहने वाले मनुष्यों की रक्षा पर्यावरण की क्षति से होने वाली आपदाओं से कर सकता हूं? अरबों लोगों के लिए अरबों वृक्ष, इस बात को ध्यान में रखते हुए आज हम यह तय कर सकते हैं कि हम सभी पांच-पांच पौधे रोपेंगे और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेंगे।
या क्या मैं कुछ संवेदनाओं का परिचय दे सकता हूं? क्या मैं उन लोगों की सेवा कर सकता हूं, जो कष्ट में हैं और उनकी मदद करने वाला कोई नहीं है? हम किसी अस्पताल जाकर उन मरीजों को थोड़ी-सी खुशी दे सकते हैं, जिनसे मिलने कोई नहीं आता। आप फूल दे सकते हैं, फल दे सकते हैं, उनके मन में कुछ उत्साह जगा सकते हैं।
या फिर क्या मैं मुस्कराहटें बांट सकता हूं? क्या मैं अपने देशवासियों के लिए कुछ ऐसा कर सकता हूं कि उनके जीवन में मुस्कराहटें खिल जाएं? आज के दिन हर युवा यह शपथ ले सकता है कि मैं अपनी मां को खुशियां दूंगा। मां खुश होंगी तो घर खुश होगी, घर खुश होगा तो समाज खुश होगा और समाज खुश होगा तो पूरा देश खुश होगा।
या क्या मैं गांवों की स्थिति सुधारने के लिए ही कुछ प्रयास कर सकता हूं? क्या मैं प्रोवाइडिंग अर्बन एमेनेटीज इन रूरल एरियाज (पीयूआरए) कार्यक्रम के जरिये अपने गांव और देशभर के गांवों की तस्वीर बदल सकता हूं?
दोस्तो, मैं चाहूंगा कि यह लेख पढ़ने वाला हर व्यक्ति ‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान (www.whatcanigive.info) का एक हिस्सा बने। मैंने और मेरी युवा टीम ने अभियान के लिए नौ चेप्टर तय किए हैं, जो कई महत्वपूर्ण सामाजिक, नैतिक और पर्यावरणगत प्रश्नों का सामना करते हैं। इस अभियान के केंद्र में हैं देश के युवा।
‘मैं क्या दे सकता हूं’ अभियान का लक्ष्य है नैतिक रूप से संपन्न युवाओं की पीढ़ी तैयार करना। हम युवाओं को बदल पाए तो देश को भी बदल पाएंगे। पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
लेने के बजाय देने का भाव
भ्रष्टाचार मुक्त समाज के लिए ‘मैं क्या ले सकता हूं’ के स्थान पर ‘मैं क्या दे सकता हूं’ की भावना आनी चाहिए। देश के नागरिकों और खास तौर पर युवाओं को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए : ‘मैं देश को क्या दे सकता हूं।’
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम
लेखक
भारत के पूर्व राष्ट्रपति हैं।

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1 Public Posts - Mon Aug 15, 2011
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Aug 14 2011 (21:34)  
 
ashish
ashish   1430 blog posts
Entry# 220202              
jabalpur se 17/09/2011 ko 11 jyoterling ki train ja rahi haiisme ltc hogi kya
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Aug 14 2011 (21:36)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220202-1              
bilkul hogi - aap iske liye kisee E_TICKIT agent se contact kare
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3 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (21:54)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220202-5              
yes aap bhee bilkul kar sakte hai
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Aug 14 2011 (21:16)   15012/Chandigarh - Lucknow Jn. Express
 
guest   0 blog posts
Entry# 220198            Tags  
does this train stops at chandausi??
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3 Public Posts - Sun Aug 14, 2011

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Aug 14 2011 (21:20)
IM UR LOVER   82 blog posts
Re# 220198-4              
yes sir
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